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देश के चार लोकसभा क्षेत्रों में लोकतंत्र का तमाशा रविवार को शांतिपूर्ण संपन्न हो गया। तमाशे को सफल बनाने में जनता की गाढी कमाई में से एक हजार करोड रुपये झोंके गये। खर्च का यह आंकडा केवल सरकारी है जो महाराजगंज समेत देश के चार लोकसभा क्षेत्रों में चुनाव कराने के लिए सरकारी मशीनरी, दस्तावेजों की छपाई, कर्मचारियों की प्रतिनियुक्ति, अधिकारियों की आवाजाही व सुरक्षा बलों आदि की तैनाती पर खर्च हुए। चुनाव प्रचार व चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवारों द्वारा अपनाये गये उल्टे-सीधे कार्यो पर हुए खर्च को जोड दे तो तमाशे पर हुआ खर्च और बढ जायेगा।
अब सवाल यह है कि इतना पैसा फूंक कर हुए इस तमाशे से लाभ किसका होना है। लोकसभा के आम चुनाव में एक साल से भी कम का समय बचा है। जो प्रतिनिधि चुन कर जायेंगे उन्हें केवल एक मानसून-शीतकालीन सत्र व बजट सत्र में अपने संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलेगा। उसमें भी चुनावी वर्ष और अचार संहिता की बंदिश की वजह से इस साल का बजट सत्र केवल औपचारिक होगा। अब इसकी भी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है कि संसद में कोई अहम वोटिंग होनी है, जिसमें नये चुने गये सदस्यों का मत अहम हो।
जरा इस पर भी सोचिये कि जहां पांच साल के लिए प्रतिनिधि चुने गये, वहां उन्होंने अपने दम पर क्या किया। क्या उस क्षेत्र में कोई ऐसी योजना ला पाये जिससे क्षेत्र की तस्वीर बदली हो। जो पूरे देश अथवा राज्य की समग्र योजना हो उसका लाभ तो सभी को मिलना है, चाहे वहां का प्रतिनिधि संसद में हो अथवा नहीं हो। अब जब पांच साल वाले सांसद अपने क्षेत्र के लिए कुछ खास नहीं कर पाते तो इस चुनाव से नौ महीने के लिए चुने वाले नये महोदय अपने क्षेत्र का कितना विकास करा देंगे।
अभी हाल में देश का आर्थिक सर्वे जारी हुआ। वित्त मंत्रलाय से माना की विकास दर सुस्त रहने से देश को एक लाख करोड रुपये का नुकसान हुआ। बाजिब तौर पर इस नुकसान की भरपायी अनाप-शनाप खर्चों में कटौती कर होना चाहिये। लेकिन, ऐसा नहीं होगा। लोकतंत्र के राजशाही खर्चे चलते रहेंगे। कटौती जनता के हिस्से यानी विकास की होगी।
कम से कम महाराजगंज के परिप्रेक्ष्य में तो मेरा यही मानना है कि यह चुनाव केवल सूबे के राजनीतिक आकओं के बीच अहम की लडाई रही। वहां की जनता का इससे रत्ती भर भी भला नहीं होने वाला। केवल एक लोकसभा क्षेत्र में चुनाव संपन्न कराने में हुए ढाई सौ करोड रुपये वहां के विकास पर खर्च किये जाते तो सोचिये क्या तस्वीर होती।
… और व्यवस्था पर काबिज लोग यह समझने की भूल न करें कि जनता यह सब नहीं समझ रही है। आखिर आधी से ज्यादा जमात यानी 53 प्रतिशत जनता ने मतदान से दूरी बनाकर यही संदेश तो दिया। बस देश के समझदार लोग जनता के इस संदेश को समझ नहीं रहे या फिर समझना नहीं चाहते।
कंचन किशोर
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