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महाराष्ट्र से बाहर रहने वाले और खासकर बिहार और यूपी के लोग बाला साहब ठाकरे को जितना उन्हें, उनके जिंदा रहते नहीं समझ सके, उससे कहीं ज्यादा उनकी अंतिम यात्रा में उमडी भीड ने उनके विराट व्यंक्तित्व को बयां कर दी। आमतौर पर नफरत की राजनीति करने वाले बाला साहब की अंतिम यात्रा में उमडी भीड ने बिहार में तकरीबन तीन दशक पूर्व जेपी की अंतिम यात्रा में शामिल भीड की याद ताजा कर दी। हालांकि, नीतियों और सिद्धातों के साथ व्यक्तित्व में भी दोनों की कहीं से तुलना नहीं की जा सकती।
खास बात यह रही कि बाला साहब की अंतिम यात्रा में बडी संख्या में उत्तर भारतीय लोग भी शामिल हुए। हाल के वर्षों में बाला साहब के निशाने पर उत्तर भारतीय रहे। कई बार उन्हों ने इनके खिलाफ आग उगला। बावजूद, फ्लैश बैक में जायें तो आज मुंबई में उत्तर भारतीयों के लिए स्पेस है तो इसकी बडी वजह भी बाला साहब ही रहे हैं। ये बाला साहब ही थे, जिन्होंने सत्तर के दशक में मुंबई पर राज करते दक्षिण भारतीयों के खिलाफ मराठी मानुष का नारा दिया। नब्बे के दशक तक मंबई के हर छोटे-बडे व आरे-तिरछे धंधे पर दक्षिण भारतीयों का कब्जा् था। आज तो मुंबई या महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों का विरोध केवल राजनीतिक भाषणों तक सिमट गया है। लेकिन, दक्षिण भारतीयों को टारगेट कर मराठी मानुष का अभियान छेडा गया तब वहां बिहार और यूपी के लोगों लिए अपना अस्तित्व खडा करना ज्यादा मुश्किल था। बाला साहब ने मराठियों के अस्तित्वि की लडाई छेडी। अपनी जमात की बात की। इससे किसी का विरोध नहीं हो सकता। लेकिन, इतने लोगों के दिलों में घर कर करने के बावजूद वे कभी राजनीति के शिखर को नहीं छू सके, तो इसके पीछे बडी वजह समय-समय पर उनके नफरत भरे शब्द वाण रहे। बाला साहब की जिंदगी उनके वारिसों के लिए भी सबक है। नफरत की राजनीति से कुछ सीटें जीती जा सकती हैं और राजनीति में पसगां की भूमिका को हासिल किया जा सकता है। लेकिन, राजनीति के शिखर पर राज नहीं किया जा सकता। और न ही नीतियों को तैयार करने की हैसियत हासिल की जा सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुंबई में बाला साहब के उदय के बाद वे वहां की सबसे बडी राजनीतिक हस्तियों में रहे। बावजूद, वहां की जनता ने उन्हें अपनी किस्मतत को तय करने का अधिकार बेहद कम समय के लिए दिया। यह भीड देख कर फुदकने वाले अपने बिहार के नेताओं के लिए भी सबक है। नफरत की भाषा के बूते शोहरत हासिल किया जा सकता है सत्ता नहीं। बाला साहब का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उद्दात राष्ट्रभाव था और जो कहते थे खुलकर कहते थे। मराठी मानुष और हिंदुत्वे के बीच बहुत कुछ ऐसा भी था जो बाला साहब को देश का नेता बनाता था।
कंचन किशोर
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