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बिहार में रंगमंच का नया आयाम गढने वाली टीम के सशक्त सिपाही गौतम घोष नहीं रहे। आज अखबार में उनकी मौत की एक छोटी सी खबर देखी। इसी खबर से पता चला कि पिछले दिनों पटना में किसी सडक दुर्घटना में घायल हो गये थे।
स्कूली जीवन में मेरा रंगमंच से बहुत संक्षिप्त रिश्ता रहा। मेरे बडे भाई दिवंगत शशि भूषण सिन्हा भी बिहार आर्ट थियेटर के संस्थापक और रंगमंच आंदोलन के प्राणेता अनिल मुखर्जी के उस कुनबे के सदस्यर थे, जिनमें गौतम घोष, आरपी तरुण, अरुण कुमार सिन्हाब, गीता गांगुली, गुप्तेंश्वेर कुमार, कुमार अनुपम व अजीत गांगुली आदि रंगकर्मी शामिल थे। गौतम दा के नहीं रहने की खबर सुन 80-85 का वह दौर आज अचानक आंखों के सामने आ गया। टीन के शेड और झोपडियों से बने गांधी मैदान के समीप कालीदास रंगालय में बैट से जुडे तमाम रंगकर्मी रोजाना जुटते थे। मैं बहुत छोटा था लेकिन आज उनकी बातों का संदर्भ लेता हूं तो ऐसा लगता है कि तब उनकी मजलिस भिखारी ठाकुर, भवई, गिद्धा व मंच आदि के माध्यमों से मंच कला के हस्ता क्षर स्टानिलावास्को् और ब्रेख्त को बिहार में जीवंत रंगमंच परंपरा का बोध कराती थी। काबुलीबाला और मिनी, विप्लव, इंसपेक्टर माता चांद पे व काकटेल आदि नाटकों का मंचन बैट के सफर की कालजयी प्रस्तुति साबित हुई। वह दौर था जब रंगमंच टीवी व सूचना तकनीक के रूप में अपने उपर आने वाले गंभीर खतरे से अनजान था। गौतम दा शरीखे कलाकारों का अभिनय इंतना सशक्तप था कि गुप्ते श्वर भईया के सीमित साउंड और लाइट इफेक्ट्सो के बावजूद दर्शक कहानी के पात्रों में खो जाते थे। तब कालीदास रंगालय में नाटक देखने के लिए भी बाहर टिकट खिडकी पर दर्शकों की लंबी कतारें लगती थी। आज गौतम दा हमलोगों के बीच नहीं हैं। लेकिन, उन सरीखे कलाकारों के जलाये दीप से रंगमंच आज भी रौशन है और आगे भी….।
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