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आम चुनाव-2014 : अच्‍छी पार्टी बनाम बुरी पार्टियां

jag_kanchan
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अन्‍ना टीम के राजनीतिक विकल्‍प देने के फैसले से  तमाम राजनीतिक दलों में मची खलबली जायज है। यह देश का दुर्भाग्‍य है कि आजादी के बाद से अबतक यहां की जनता का पाला केवल थोपे गये राजनीतिक दलों से पडा। कोई भी राजनीतिक दल जनता के बीच से, जनता के मुद्दों के साथ और जनता के लिये नहीं उभरी। अधिकांश राजनीतिक दल कांग्रेस पार्टी के भीतर की उथल-पुथल की देन रहे। भाजपा व वाम दलों जैसी पार्टियां बुनियादी मुद्दों पर कांग्रेस से अलग रही भीं तो सियासत के सिद्धांतों के नाम पर अनेकों बार विचारधारा  से भटकती रही। जनता की मजबूरी रही कि अपने-अपने तरीके से देश का विश्‍वास तोडने वालों को ही वह चुनती रही और जनता की इस मजबूरी को राजनीतिक दल जनमत समझ उनकी उम्‍मीदों पर कुठाराघात करते रहे। अब जबकि जनता के पास विकल्‍प की उम्‍मीद दिख रही है तो उनकी मजबूरी का फायदा उठा सत्‍ता का सुख भागने वाली पार्टियां चोर-चोर मौसेरे भाई की तर्ज पर एकजुट होने लगे हैं।
महात्‍मा गांधी की दूरदृष्टि ने पहले ही राज के नाम पर नीतियों को ताक पर रखने के राजनीतिक दलों के खेल को भांप लिया था और अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष के लिये गठित कांग्रेस को आजादी के बाद भंग करने की इच्‍छा जाहिर की थी। तब उनकी बात नहीं मानी गयी। आज राजनीतिक दलों की हालत देखिये, सडक पर चलते किसी भी राहगीर से नेताओं के बारे में उनकी धारणा पूछ लीजिये। सौ में से नब्‍बे उन्‍हें चोर, बेइमान और धोखेबाज जैसे अलंकरणों से नवाजेंगे। इससे बडा दुर्भाग्‍य और क्‍या हो सकता है कि जिसे जनता देश का बागडोर सौंपती है, उन्‍हीं के बारे में ऐसी राय भी रखती है। किसने पैदा किये ऐसे हालात, कौन है इसके लिये जिम्‍मेदार। जनता तो कतई नहीं। जनता ने तो हर बार लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पूरे उत्‍साह से भाग लिया और हर किसी को परखा। लेकिन, सत्‍ता चाहे किसी की रही, हालात एक जैसे रहे। निरीह जनता को खुश करने के लिए कहा जाता है कि उसके वोट में बडी ताकत है। लेकिन, क्‍या वोट की यह ताकत जनता को बगैर घूस के उसके मोबाइल चोरी की प्राथमिकी थाने में दर्ज करवा सकता है , या फिर उसके बच्‍चे का जन्‍म प्रमाणपत्र दिलवा सकता है।
अन्‍ना की पार्टी की शुरूआत बेहद सटीक और उम्‍मीदों को जगाने वाली रही। पहली बार पार्टी बनाने के लिए जनता की राय मांगी गयी। पार्टी के सिद्धांतों और घोषण पत्र को तय करने के लिए जनता की राय लिये जाने की बात कही गयी। वर्तमान राजपीतिक दल भले ही इस बदली परिस्थितियों का मजाक उडा रहे हों, लेकिन जनता के बीच अपने खिलाफ अंडर करंट को वे खारिज कर अपने ही पैर पर कुलहाडी मार रहे हैं। कुछ लोग तब और अब की परिस्थिति को दरकिनार कर जेपी आंदोलन की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन, तबतक गैर कांग्रेसी दलों को परखा नहीं गया था। जेपी के पास गैर कांग्रेसी दलों के रूप में उम्‍मीद की एक किरण बाकी थी। हालांकि, जेपी के सपनों के साथ उन पार्टियों ने क्‍या किया और आज तक क्‍या करते आ रहे हैं, यह जगजाहिर है।
अन्‍ना आंदोलन आम लोगों के सवालों से जुडा है। फिर, उन सवालों की अनदेखी कमोवेश तमाम दल अपने-अपने तरीके से कर रहे हों तो फिर विकल्‍प क्‍या बचता है। देश के संवैधानिक ढांचा पर बैठे लोग जब जन आवाज का माखौल उडा रहे हों तो एक ही उपाय है कि उस ढांचे में अपना भी ताकतवर वजूद कायम किया जाये। अन्‍ना टीम के राजनीतिक विकल्‍प के फैसले पर अबतक कुछ राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के रियेक्‍शन बेहद निराशाजनक हैं। कोई अन्‍ना को अपने क्षेत्र से लडने की चुनौती दे रहा है तो कोई चुनाव में नई पार्टी की औकात पता चलने का व्‍यंग्‍य कस रहा है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सभी को शामिल होने का हक है और अन्‍ना टीम की पार्टी कोई बनती है तो पहली बार परिवार, धर्म और जाति से अलग केवल जनता के मुद्दों पर गठित पहली कोई पार्टी होगी। सत्‍ता सुख भोगने वाले नेता इसे खारिज नहीं कर सकते। कहीं, अगले आम चुनाव में जनता का एजेंडा एक अच्‍छी पार्टी बनाम कई बुरी पार्टियों बनकर न रह जाये।

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