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एक और पड़ोसी दोस्त खो दिया हमने

jag_kanchan
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बड़े बुजुर्ग कह गये हैं, जीवन भर के लिए सुख-चैन से हाथ धोना हो तब अपने पड़ोसी को दुश्मन बना लो। अपने देश का तो दुर्भाग्य है कि इसके पड़ोसियों में दोस्तों से ज्यादा दुश्मनों की संख्या है। जिस पाकिस्तान की आधी आबादी की रिश्तेदारी भारत में है, वह अपना कट्टर दुश्मन। चीन की दबंगई जग-जाहिर है। जिस बांग्लादेश के जन्म पर हमारे हजारों जवानों का खून बहा, उस देश से भारत विरोधी गतिविधियां संचालित होती है। अफगानिस्तान खुद अस्थिर है। म्यानमार की सैन्य समर्थित सरकार से बेहतर संबंध रखना हमारी नीतियों के खिलाफ है। नेपाल हमें जलाने के लिए चीन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा है। मालद्वीप और भूटान अंतर्राष्ट्रीय मंच पर प्रभावहीन हैं। ले-देकर श्रीलंका के रूप में अपना एक ही ऐसा पड़ोसी है, जिसे हम अपना हितैषी बता सकते थे। अंतराष्ट्रीय मंच पर थोड़ा-बहुत उसका प्रभाव भी है। लेकिन, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में उसके खिलाफ जाकर हमने अपने इस एकमात्र भरोसेमंद पड़ोसी का भी विश्वास खो दिया।
पिछली सदी में भारत गुट-निरपेक्ष आंदोलन का अगुआ हुआ करता था। सुपर पावर सोवियत संघ और अमेरिका के प्रभाव में आये बिना अपनी अलग राह। ना काहू से दोस्ती और ना काहू से बैर, केवल सच का साथ। अलग-अलग समय पर इंदिरा गांधी और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे कूटनीतिक समझ वाले नेताओं से इन नीतियों को धार मिली और भारत को विकासशील देशों के नेता के रूप में पहचान मिली। यासर अराफात और इंदिरा गांधी में भाई-बहन सरीखे रिश्ते के व्यापक मायने थे। फिलिस्तीन की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहा नेता यदि भारत की प्रधानमंत्री को अपनी बड़ी बहन मानता था तो हमें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर इसका जबरदस्त कूटनीतिक लाभ मिलता था। आज हम कश्मीर में अलगाववाद और पूरे देश में आतंकी गतिविधियों से जूझ रहे हैं। लेकिन, जरूरत पडऩे पर अपने देश से बाहर दुनिया का एक भी ऐसा मुस्लिम नेता नहीं है, जिसपर पूरे विश्वास के साथ हम अपने साथ आने का भरोसा कर सकते हैं।
कुछ समय पहले तक कूटनीतिक फैसलों पर घरेलू राजनीति प्रभाव नहीं डालती थी। बाद में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर भारत ने अपनी नीतियां बदली। धीरे-धीरे इसमें लचीलापन आया और आंतरिक राजनीति हावी होने लगी। खासतौर पर अपनी सरकार को बचाने (सहयोगी दल डीएमके ने श्रीलंका का साथ देने पर दी थी समर्थन वापसी की धमकी) के लिए कांग्रेस ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर श्रीलंका के खिलाफ जिस तरह वोटिंग की है, वह देश के लिये अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।
दरअसल, तीसरी दुनिया को नीचा दिखाने के लिए पश्चिमी देश अक्सर मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगा यूएनओ में मुद्दा को उछालते रहते हैं। इस बार भी तीन साल पहले खत्म हुए श्रीलंका की सेना और चरमपंथी तमिल संगठन लिट्टे के बीच संघर्ष में उन लोगों ने अब जाकर मानवाधिकार उल्लंघन का मसला उछाला। मामले की जांच को जबरन श्रीलंका पर थोपने के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में उसके खिलाफ प्रस्ताव लाया गया। 47 देशों की परिषद में भारत समेत 24 देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग की, 8 न्यूट्रल रहे और 15 ने प्रस्ताव का विरोध किया। खास बात यह है कि श्रीलंका के पक्ष में वोटिंग करने वालों में चीन भी शामिल है। जबकि, जिस भारत से प्रस्ताव के विरोध में वोटिंग करने के लिए श्रीलंका पिछले कई दिनों से अनुरोध करता आ रहा था, उसी ने उसका साथ नहीं दिया।
कांग्रेस भले ही सबकुछ जानकर भी अनदेखी करे, लेकिन भारत का यह फैसला आने वाले दिनों में कई परेशानियों को जन्म देगा। कश्मीर में सेना के द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाने वालों की भी कमी नहीं है। युद़ध दुश्‍मन से गले लग कर नहीं लडा जा सकता। कल को अंतराष्ट्रीय मंच पर ऐसा ही प्रस्ताव हमारे खिलाफ आया तब हम किस मुंह से अपने इस पड़ोसी से मदद की उम्मीद करेंगे। और फिर चीन हर उस देश को जिगरी दोस्त बनाने को तैयार है जो जरा सा भी हमारे खिलाफ हो। – कंचन

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