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नोएडा एक्सटेंशन के साबेरी गांव में 156 हेक्टेयर भूमि के अधिग्रहण पर कोर्ट का फैसला आ चुका है। बात माननीय उच्चतम न्यायालय के फैसले पर सवाल उठाने का नहीं है। इससे कोई इंकार भी नहीं है कि राज्य सरकार ने उद्योग विस्तार के नाम पर किसानों की जमीन धोखे से ली। परंतु, शीर्ष स्तर पर इस धोखे से अंजान उन हजारों लोगों का क्या होगा जिन्होंने अपनी गाढ़ी कमाई उसी भूमि पर बनने वाले सपनों के महल में झोंक दिया था। कोर्ट, सरकार या फिर बिल्डर उनके टूटे सपनों को कौन सहारा देगा?
फैसले के बाद यह सवाल केवल उन हजारों लोगों के ही जेहन में नहीं कौंध रहा है। बल्कि उन हजारों के लोगों के लाखों रिश्तेदारों व शुभेच्छुओं के मन में भी चिंता का घर पैदा कर रहा है। कोर्ट के फैसले से प्रभावित मेरे भी एक रिश्तेदार हैं जो पिछले सप्ताह मिठाई का पूरा डब्बा थमाते हुए दिसंबर में नोइडा एक्सटेंशन में अपने घर का गृहप्रवेश में आने का निमंत्रण देकर गये थे। आज सुबह जब मैनें उन्हें फोन किया तो आवाज में इतनी भर्राहट की बात भी ठीक से नहीं हो सकी। उनकी बातों से ऐसा लगा जैसे उनकी पूरी दुनिया उजड़ गयी हो।
दरअसल, गलती यूपी सरकार ने की है और बिल्डरों ने उसी गलती का फायदा उठाया है। किसान भी बहुत बुरे नहीं फंसे हैं। जिस समय जमीन अधिग्रहण हुआ, उस समय किसानों ने सोचा भी नहीं होगा कि यह जगह इतना विकसित हो जायेगा। तब मुआवजे की रकम पर कोई बडी आपत्ति नहीं हुई। जब यहां आम लोगों के सपनों के आशियाने ने आकार लेना शुरू किया तो अचानक जमीन सोना बन गयी और जोर आजमाइश शुरू हो गयी।
माननीय जज साहब का फैसला शिरोधार्य। सरकारें तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले से घठा गयी हैं। और फिर सरकार में शामिल लोगों के बाप का इस फैसले से कुछ आता-जाता भी नहीं है। जिन अधिकारियों ने बिल्डरों से मोटी रकम लेकर यह खेल खेला, उन पर कोई आंच नहीं आने वाली। दुर्भाग्य से इस फैसले का साइड-इफेक्ट सबसे ज्यादा उसे ही झेलना है, जिसकी गलती बस इतनी सी है कि उसने शहर में इक घर अपना का सपना देखा। आज भले ही कुछ बिल्डर अपने यहां फ्लैट बुक कराने वालों को दिलासा दे रहे हों, लेकिन सब्जी का व्यवसाय करने वाला भी जानता है कि धंधे में लगा पैसा रोटेशनल मनी होता है। जबतक धंधा चल रहा तभी तक पैसे का फ्लो है। अब जब बिल्डरों के पास मनी का फ्लो ही नहीं होगा तो वे क्या हाउसिंग प्रोजेक्ट में लग चुके ईंटों को बेचकर निवेशकों का पैसा चुकायेंगे? काश! ऐतिहासिक फैसला सुनाने वाले जज साहब का भी एक आशियाना यहां बुक होता। तब शायद फैसले की आंच सरकार, प्राधिकरण, दलाल अफसरों व बिल्डरों पर आती। न कि यहां अपनी जमा पूंजी फंसाने वाले निरीह आम जनता पर। बहरहाल, डगर-डगर किसानों के हितैषी बने घूम रहे राहुल बाबा पर भी निगाहें टिकी है। क्योंकि, इस फैसले से प्रभावित सबसे ज्यादा वैसे ही आम लोग हैं जो वर्षों से देश की राजधानी के विकास में अपना अहम योगदान दे रहे हैं।
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