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सरकारी अलाव की राख के अजब-गजब गुण

jag_kanchan
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सभी जानते हैं, ठंड व अलाव में गहरा रिश्ता है। जैसे-जैसे ठंड बढ़ती है अलाव का महत्व भी बढ़ता जाता है। इसके विशिष्ट गुणों का कायल लोकतंत्र का हर वर्ग है। ठंड बढ़ते ही अलाव मीडिया वालों को बिना हाथ-पैर हिलाये रोजाना एक खबर प्रदान करता है। नेताओं व हाकिमों को अखबार के पन्ने पर छपने का मौका प्रदान करता है। छुटभैये सरकारी कारिंदों के लिए यही अलाव महंगाई के दौर में साग-सब्जी का इंतजाम करता है। ..और जिसके लिए यह अलाव आमतौर पर जलता है, उसे यह अहसास भी कराता है कि तपिश आग में नहीं राख में होती है। क्योंकि, चौक-चौराहों पर सरकारी अलाव भले ही जलने के कुछ ही घंटों बाद बुझ जाता है। ..परंतु, उसकी राख के बूते गरीब पूरी ठंड गुजार देते हैं।
  दरअसल, वादियों वाली ठंड, पठारों वाली ठंड, मैदानी ठंड आदि ठंड के जैसे अलग-अलग रूप होते हैं। वैसे ही अलाव के भी कई रूप हैं। कुछ अलाव घरों में जलते हैं। इस अलाव को जलाने में घर का आटा गीला होता है। कुछ अलाव दफ्तरों में जलते हैं। इस अलाव में पुरानी व ऊपर-नीचे की कारगुजारियां उजागर करने वाली फाइलों के अलावा कार्यालय के टूटे-फूटे फर्नीचर शहीद होते हैं। सबसे महत्वपूर्ण अलाव या यूं कह लें कि जिसकी वजह से इसे राष्ट्रीय पहचान मिली, वह है चौक-चौराहों पर जलने वाला सरकारी अलाव..। यह अलाव गरीबों के लिए जलाया जाता है। शहर के एक-आध दर्जन स्थानों पर इसे सुलगाने के लिए प्रशासन से लेकर आपदा प्रबंधन विभाग तक सक्रिय रहता है। इस अलाव के कुछ खास गुण हैं। मसलन, ..इस अलाव को सुलगाने से पहले ‘हाकिम’ शहर में ठंड से दो-चार गरीबों का ‘विकेट’ गिरने का इंतजार करते हैं। अत्यंत जरूरी होने पर इसे जलाने का सरकारी फरमान जारी होता है। इसके बाद विभागीय कारिंदे घूम-घूम कर चौक चौराहों पर इतनी ही लकड़ियां गिराते हैं, जितने में केवल सरकारी फरमान रौशन हो सके। जबतक, गरीबों को (वस्तुत: जिनके लिये अलाव जलता है) पास के चौराहे पर अलाव जलने की खबर मिलती है, तबतक वह राख में तब्दील हो चुका रहता है। इसके बाद उसी बुझी राख पर हाथ रख गरीब ‘सरकारी गर्मी’ का अनुभव करता है। जब से देश में ‘जनता का राज’ आया, ठंड में ऐसे ही अलाव जलता है। इस बार भी एक दिन अलाव जलकर बुझ चुका है। परंतु, ठंड अभी..।

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