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बाप रे बाप…विधायक बने में एतना झमेला!

jag_kanchan
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इन दिनों बिहार में चुनाव को ले राजनीतिक मंच पर टिकट को ले जो परिदृश्‍य उभर रहे हैं, उसकी एक बानगी आप ‘महान’ जनता के सामने पेश है:-
सीन एक- नेताजी की भक्ति से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें दर्शन दिये और एक वरदान मांगने को कहा। नेता जी ने झट से कहा- हे प्रभु! मुझे विधानसभा का पार्टी से एक टिकट दिलवा दिजीये। ब्रह्मा जी तथास्तु कहकर अंतZध्यान हो गये। रात में ब्रह्मा जी पार्टी सुप्रीमों के सपने में आये और अपने भक्त को टिकट देने का आदेश दे दिया। सुबह रात वाले सपने का जिक्र सुप्रीमों साहब ने घर में किया तो मैडम रोना-धोना लेकर बैठ गयीं। दरअसल उनसे पहले ही किसी ने उक्त सीट से टिकट की पैरवी कर रखी थी। साहब असमंजस में! एक ओर ब्रह्मा जी का आदेश तो दूसरी ओर घर की सरकार से बेदखल होने का खतरा। ऐसे भी एक-एक कर ससुराल वाले साहब से दूर होते जा रहे हैं। इस स्थिति में साहब ने घर की सरकार बचाना ज्यादा मुनासिब समझा। नतीजा यह निकला कि हालात के आगे ब्रह्मा जी की पैरवी भी नेताजी के काम नहीं आयी।
सीन दो- तारक बाबू यह सोचकर परेशान थे कि दुनिया में क्या बनना सबसे मुश्किल है। पहले सोचा बैंक का बाबू, मन से आवाज आयी- नहीं! जोड़-घटाव में तेजतर्रार कोई भी बैंक का बाबू बन सकता है। …फिर सोचा- आइएएस अधिकारी, मन से कहा- नहीं! कोई भी अच्छा पढऩे-लिखने वाला दो-चार साल मेहनत कर यह ओहदा हासिल कर सकता है। तारक बाबू के मन में ख्याल पर ख्याल आ रहे थे। सोचा- पत्रकार बनना सबसे मुश्किल होगा। मन ने झिड़की लगायी- क्या सोच है चाचा! जिसे और कोई काम न मिले वह यह काम कर लेता है। अंत में तारक बाबू इस नतीजे पर पहुंचे कि किसी पार्टी के जुझारू कार्यकर्ता के लिए विधायक बनना इस जमाने में सबसे मुश्किल काम है। तारक बाबू के इस नतीजे के पीछे बड़ा दमदार शोध है। …पूरी जवानी पार्टी का झंडा ढो-ढोकर कार्यकर्ता नेता बनता है। नेता बनने के बाद पार्टी के धरना-प्रदर्शनों में पुलिस की लाठियां खाता है। समाज-परिवार में निठल्ला रहने के ताने सुनता है। जब चुनाव में टिकट की बारी आती है तो क्षेत्र से उसके जैसे पचास भाई दावेदारी में खड़े हो जाते हैं। इनसे भी पार पा लिया तो बड़े नेताओं के नाते-रिश्तेदार या फिर पैसा रोड़ा बनकर खड़ा हो जाता है। एतना झमेला के बाद किसी तरह टिकट मिल भी गया और जनता का आशीर्वाद मिला तो ठीक! नहीं तो…पांच साल सड़क से टिकट तक फिर वही कहानी।
सीन तीन- चुनाव जीतने के बाद नेताजी जीत का हिसाब लगा रहे थे। टिकट लेने में खर्च, दावेदारी की हवा बनाने में कार्यकर्ताओं पर खर्च, चुनाव लडऩे का खर्च, जीत की जश्न का खर्च और पूरी जवानी पार्टी के नाम करने का मेहनताना। नेताजी परेशान! कैसे होगी भरपायी, फिर जनता से किये गये वायदे भी पूरे करने हैं। एक अनुभवी नेताजी ने उनकी चिंता दूर की- सब हो जायेगा! नगर विकास, जल विकास, दलित विकास, ग्रामीण विकास…वगैरह-वगैरह! इतनी सारी योजनायें हैं। फिर आपका अपना विकास कोष है। …जनता की चिंता छोडिय़े, वह सब समझती है। आखिर उसी के सामने तो…यह सब खेल चलता है।

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